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Toggleविष्णु सहस्रनाम स्तोत्र
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र हिन्दू धर्म का एक अत्यंत पवित्र और प्रभावशाली स्तोत्र है, जिसमें भगवान श्रीविष्णु के एक हजार नामों का गान किया गया है। यह स्तोत्र महाभारत के अनुशासन पर्व में उस समय प्रस्तुत हुआ था, जब महर्षि भीष्म शरशैय्या पर लेटे हुए थे और युधिष्ठिर उनसे धर्म, नीति, मोक्ष, जीवन और आत्मा से संबंधित जिज्ञासाएँ कर रहे थे। उसी संदर्भ में भीष्म ने युधिष्ठिर को यह ज्ञान दिया कि इस युग में यदि कोई सर्वश्रेष्ठ और सरल साधना है तो वह है भगवान विष्णु के सहस्र नामों का स्मरण।
इस स्तोत्र की महिमा इतनी विस्तृत है कि इसे “कली युग की अमोघ साधना” माना गया है। यह न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है, बल्कि सांसारिक क्लेश, रोग, भय, मृत्यु, दुर्भाग्य और मानसिक अशांति से भी रक्षा करता है। “सहस्रनाम” अर्थात “हज़ार नाम” — इन नामों के पीछे न केवल उपासना है, बल्कि इनमें ब्रह्मांड का रहस्य, भगवान के कार्य-स्वरूप, गुण, शक्तियाँ और उनकी लीलाओं का सार समाहित है।
प्रारंभ मंत्र:
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः ॥
श्लोक 1:
ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत्-प्रभुः ।
भूतकृत् भूतभृत् भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥
अर्थ:
वह सम्पूर्ण ब्रह्मांड हैं, सभी यज्ञों में उच्चारित वषट्कार हैं। वह अतीत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी हैं। वे सभी प्राणियों को उत्पन्न करने वाले, उनका पालन करने वाले, अस्तित्वस्वरूप, आत्मस्वरूप और समस्त सृष्टि का पोषण करने वाले हैं।
श्लोक 2:
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमं गतिः ।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥
अर्थ:
वे शुद्ध आत्मा हैं, परमात्मा हैं और मुक्त आत्माओं की परम गति हैं। वे नित्य, साक्षी, सबका जानने वाले और अविनाशी हैं।
श्लोक 3:
योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥
अर्थ:
वे योगस्वरूप हैं, योगियों के नेता हैं, प्रकृति और पुरुष के स्वामी हैं। वे नारसिंह रूप में अवतरित हुए, श्रीयुक्त हैं और श्रेष्ठ पुरुष हैं।
श्लोक 4:
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुः भूतादिः निधिरव्ययः ।
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥
अर्थ:
वे सबकुछ हैं, सर्वशक्तिमान हैं, शुभ हैं, स्थिर हैं, सभी प्राणियों के आदि कारण हैं, अविनाशी निधि हैं, उत्पत्ति और पालन करने वाले हैं, महान स्वामी हैं।
श्लोक 5:
स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥
अर्थ:
वे स्वयंभू हैं, कल्याणकारी हैं, सूर्यस्वरूप हैं, कमल नेत्रों वाले हैं, उनका स्वर महान है। वे न आदि हैं न अंत हैं, सबके रचयिता और सर्वोच्च धारणकर्ता हैं।
श्लोक 6:
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥
अर्थ:
वे जानने से परे हैं, इन्द्रियों के स्वामी हैं, जिनकी नाभि से कमल निकला है, अमरों के स्वामी हैं। वे रचनाकार हैं, मनु हैं, निर्माणकर्ता हैं, अचल, प्राचीन और अडिग हैं।
श्लोक 7:
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मंगलं परम् ॥
अर्थ:
वे इन्द्रियों से परे हैं, शाश्वत हैं, कृष्ण स्वरूप हैं, लाल नेत्रों वाले हैं, शक्तिशाली हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं, वे पवित्र, मंगलमय और परम तत्त्व हैं।
श्लोक 8:
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥
अर्थ:
वे ईश्वर हैं, प्राण देने वाले हैं, प्राणस्वरूप हैं, सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ हैं, सृष्टिकर्ता हैं। वे हिरण्यगर्भ हैं, पृथ्वी को धारण करने वाले हैं, लक्ष्मीपति और मधु राक्षस का वध करने वाले हैं।
श्लोक 9:
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ॥
अर्थ:
वे ईश्वर हैं, पराक्रमी हैं, धनुषधारी हैं, बुद्धिमान हैं, बहुबलशाली हैं, जिनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता, कृतज्ञ हैं और आत्मस्वरूप हैं।
श्लोक 10:
सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेता प्रजाभवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥
अर्थ:
वे देवताओं के स्वामी हैं, शरणदाता हैं, सुखस्वरूप हैं, समस्त जगत के बीज हैं, सबकी उत्पत्ति के कारण हैं। वे दिन, वर्ष, सर्प स्वरूप, आत्मज्ञान और सर्वदर्शी हैं।
श्लोक 11:
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः ।
वृषाकपिर्अमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ॥
अर्थ:
वे अजन्मा हैं, सर्वेश्वर हैं, सिद्ध हैं, सिद्धि देने वाले हैं, सभी कार्यों के आदि हैं और अच्युत हैं। वे धर्म रूपी वृष के प्रतीक हैं, अनंत आत्मा हैं और समस्त योगों के स्त्रोत हैं।
श्लोक 12:
वसुः वसुमनाः सत्यः समात्मा सम्मितः समः ।अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥12॥
अर्थ:
वह समस्त वस्तुओं का सार हैं, सबके प्रिय हैं, सत्यस्वरूप हैं, समान आत्मा हैं, संतुलित हैं। उनके कार्य निष्फल नहीं होते, वे कमल नेत्रों वाले हैं, धर्म में रत और धर्म का स्वरूप हैं।
श्लोक 13:
रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।अमृतः शाश्वतः स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥13॥
अर्थ:
वे रुद्र रूप में भी हैं, अनेक शिरों वाले हैं, सृष्टि के मूल कारण हैं, पवित्र यशस्वी हैं। वे अमृतस्वरूप, शाश्वत, अचल, उत्तम आरोहण वाले और महान तपस्वी हैं।
श्लोक 14:
सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः ।वेदो वेदविदव्यंगो वेदाङ्गो वेदवित्कविः ॥14॥
अर्थ:
वे सब जगह व्याप्त हैं, सब कुछ जानते हैं, प्रकाशमान हैं, सबके सेनापति हैं और लोगों का पालन करने वाले हैं। वे स्वयं वेद हैं, वेदों को जानने वाले, अक्षुण्ण, वेदांग स्वरूप और परम कवि हैं।
श्लोक 15:
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥15॥
अर्थ:
वे लोकों के अध्यक्ष, देवताओं के अध्यक्ष, धर्म के अध्यक्ष, कर्म और अकर्म के जानने वाले हैं। उनके चार रूप हैं, चार दांत हैं और वे चार भुजाओं वाले हैं।
श्लोक 16:
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुः जगदादिजः ।अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥16॥
अर्थ:
वे अत्यंत तेजस्वी हैं, स्वयं अन्न भी हैं और भक्षक भी हैं। वे सहनशील, जगत के आदिस्वरूप, निष्पाप, विजयी, विजेता, सृष्टि के कारण और पुनः उत्पन्न होने वाले हैं।
श्लोक 17:
उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरूर्जितः ।अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥17॥
अर्थ:
वे उपेन्द्र हैं, वामन रूप धारण करने वाले, दीर्घ हैं, उनके कार्य कभी निष्फल नहीं होते, वे पवित्र और शक्तिशाली हैं। वे इन्द्रियों से परे, संग्रह करने वाले, सृष्टि के कारण, आत्मसंयमी, नियम स्वरूप और यम (नियंता) हैं।
श्लोक 18:
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥18॥
अर्थ:
उन्हें जाना जा सकता है, वे वैद्य (चिकित्सक) हैं, सदा योग में स्थित रहते हैं, शत्रुओं का संहार करने वाले हैं, लक्ष्मीपति और मधु नामक दैत्य का वध करने वाले हैं। वे इन्द्रियों से परे हैं, महान मायावी, उत्साही और अत्यंत बलवान हैं।
श्लोक 19:
महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ॥19॥
अर्थ:
वे महान बुद्धिमान, वीर्यवान, शक्तिशाली और दीप्तिमान हैं। उनका स्वरूप वर्णनातीत है, वे लक्ष्मी के स्वामी हैं, अनिर्वचनीय आत्मा हैं और पर्वतों को धारण करने वाले हैं।
श्लोक 20:
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ॥20॥
अर्थ:
वे महान धनुर्धारी हैं, पृथ्वी के पालक हैं, लक्ष्मी के वासस्थान हैं और सज्जनों की गति हैं। वे अनिरुद्ध हैं, देवताओं को आनंद देने वाले, गोपालक और गोविदों (ज्ञानियों) के स्वामी हैं।
श्लोक 21:
मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ॥21॥
अर्थ:
वे मरीचि (प्रकाश) हैं, दमक (शांत करने वाले) हैं, हंस (विवेक स्वरूप) हैं, गरुड़ के समान पंखों वाले हैं, सर्पों में श्रेष्ठ हैं। वे स्वर्णनाभि वाले हैं, महान तपस्वी हैं, उनके नाभि से कमल निकला है और वे प्रजापति हैं।
श्लोक 22:
अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः संधाता संधिमान् स्थिरः ।अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ॥22॥
अर्थ:
वे अमर हैं, सबकुछ देखने वाले हैं, सिंह के समान हैं, सृष्टि के समन्वयकर्ता हैं। वे अचल, अजन्मा, अजेय, शासक, प्रसिद्ध आत्मा और असुरों के शत्रु हैं।
श्लोक 23:
गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यम् सत्यपराक्रमः ।निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पति रुदारधीः ॥23॥
अर्थ:
वे गुरु हैं, सबसे श्रेष्ठ गुरु हैं, सबका धाम हैं, सत्य हैं, जिनका पराक्रम भी सत्य है। वे पलक झपकने वाले और न झपकने वाले दोनों रूपों में हैं, पुष्पों से अलंकृत हैं, वाणी के स्वामी और विशाल बुद्धि वाले हैं।
श्लोक 24:
अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः ।सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥24॥
अर्थ:
वे अग्रणी (सर्वप्रथम चलने वाले), ग्रामों के नेता, श्रीयुक्त, न्यायस्वरूप, मार्गदर्शक और वायु समान व्याप्त हैं। वे हजार सिरों, हजार आंखों और हजार पैरों वाले विश्व आत्मा हैं।
श्लोक 25:
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः संप्रमर्दनः ।अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ॥25॥
अर्थ:
वे चक्रवात की भांति घूर्णनशील हैं, इच्छाओं से निवृत्त हैं, आत्मस्थित हैं, संहार करने वाले हैं। वे दिन स्वरूप हैं, प्रलय में सबको समेटने वाले अग्नि, वायु और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं।
श्लोक 26:
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृक् विश्वभुग्विभुः ।सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ॥26॥
अर्थ:
वे अति प्रसन्न हैं, शांतचित्त हैं, संसार को धारण करते हैं, भोगते हैं और सर्वव्यापक हैं। वे सत्कर्म करने वाले, पूज्य, साधु, जल को पी जाने वाले (गंगा के उद्गम से जुड़े), नारायण और नर रूप हैं।
श्लोक 27:
असंख्य प्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृत् शुचिः ।सिद्धार्थः सिद्धसङ्कल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ॥27॥
अर्थ:
वे अनगिनत हैं, माप से परे आत्मा हैं, विशिष्ट हैं, श्रेष्ठों का निर्माण करने वाले और अत्यंत पवित्र हैं। वे सिद्धि को प्राप्त करने वाले, संकल्प सिद्ध करने वाले, सिद्धि देने वाले और सिद्धि पाने के साधन हैं।
श्लोक 28:
वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ॥28॥
अर्थ:
वे धर्मरूपी वृषभ (बैल) के स्वामी हैं, वृषभ स्वरूप हैं, विष्णु हैं, धर्म की पर्वत श्रेणियों के समान उच्चतम रूप हैं। वे पोषण करने वाले, सदा बढ़ने वाले, एकांतप्रिय और वेदों के समुद्र स्वरूप हैं।
श्लोक 29:
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।नैक रूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ॥29॥
अर्थ:
वे सुंदर भुजाओं वाले हैं, जिन्हें संभाल पाना कठिन है, वे महान वक्ता हैं, देवराज इन्द्र के भी स्वामी हैं, धन देने वाले हैं। वे अनेक रूपों में प्रकट होते हैं, विशाल रूप वाले हैं, अग्निरूप में तेजस्वी हैं।
श्लोक 30:
ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ॥30॥
अर्थ:
वे ओज, तेज और दीप्ति को धारण करने वाले हैं। वे प्रकाशस्वरूप, उग्र प्रभाव वाले, समृद्ध, स्पष्ट अक्षरस्वरूप मंत्र हैं, चन्द्र के समान शीतल और सूर्य के समान तेजस्वी हैं।
श्लोक 31:
अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिंदुः सुरेश्वरः ।औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ॥31॥
अर्थ:
वे अमृतांशु (चंद्रमा) से उत्पन्न हुए हैं, तेजस्वी हैं, चंद्रबिंदु के समान शीतल हैं, देवताओं के ईश्वर हैं। वे सभी औषधियों के रूप में हैं, जगत के लिए सेतु हैं और सत्य व धर्म में पराक्रमी हैं।
श्लोक 32:
भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः ।कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ॥32॥
अर्थ:
वे भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी हैं, वायु रूप में हैं, पवित्र करने वाले और अग्निस्वरूप हैं। वे कामनाओं का नाश करने वाले, उन्हें उत्पन्न करने वाले, प्रियतम और काम प्रदान करने वाले प्रभु हैं।
श्लोक 33:
युगादिकृत्युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजित् अनंतजित् ॥33॥
अर्थ:
वे युगों की शुरुआत करने वाले, उन्हें संचालित करने वाले, अनेक प्रकार की माया वाले और महान भक्षक हैं। वे अदृश्य हैं फिर भी व्यक्त रूप में प्रकट होते हैं। वे हजारों पर विजय पाने वाले और अनंत पर भी विजय प्राप्त करने वाले हैं।
श्लोक 34:
इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ॥34॥
अर्थ:
वे प्रिय हैं, विशिष्ट हैं, सज्जनों के प्रिय हैं, शिखण्डधारी हैं, नहुष हैं, धर्मरूपी वृषभ हैं। वे क्रोध का नाश करने वाले, क्रोध उत्पन्न करने वाले, कर्ता हैं, उनकी बाहें सम्पूर्ण जगत में फैली हुई हैं और वे पृथ्वी को धारण करने वाले हैं।
श्लोक 35:
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।अपां निधिरधिष्ठानम् अप्रमतः प्रतिष्ठितः ॥35॥
अर्थ:
वे अच्युत हैं, प्रसिद्ध हैं, प्राणस्वरूप हैं, प्राण देने वाले हैं, इन्द्र के छोटे भाई हैं। वे जल के निवास हैं, सबके आधार हैं, सजग हैं और सबमें प्रतिष्ठित हैं।
श्लोक 36:
स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।वासुदेवो बृहद्भानुः आदिदेवः पुरंदरः ॥36॥
अर्थ:
वे स्कंद हैं (कार्तिकेय), स्कंद को धारण करने वाले हैं, धैर्य के साथ बोझ उठाने वाले हैं, वरदान देने वाले हैं, वायु को वहन करने वाले हैं। वे वासुदेव हैं, विशाल तेजस्वी हैं, आदि देवता हैं और इन्द्र के समान शत्रुओं का नाश करने वाले हैं।
श्लोक 37:
अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥37॥
अर्थ:
वे शोक रहित हैं, तारक हैं, उद्धारकर्ता हैं, शूरवीर हैं, शूर वंश में उत्पन्न हैं और प्रजा के स्वामी हैं। वे सदैव अनुकूल रहते हैं, अनेक चक्रों वाले हैं, कमल धारण करने वाले हैं और उनकी आंखें कमल के समान हैं।
श्लोक 38:
पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् ।महर्धिर्ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुड़ध्वजः ॥38॥
अर्थ:
वे पद्मनाभ हैं (जिनकी नाभि से कमल निकला है), उनकी आंखें कमल के समान हैं, वे कमल में प्रकट हुए हैं, समस्त शरीरों का पालन करने वाले हैं। वे महान ऐश्वर्य से युक्त हैं, समृद्ध हैं, वृद्ध आत्मा हैं, महान नेत्रों वाले हैं और गरुड़ध्वज हैं।
श्लोक 39:
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिंजयः ॥39॥
अर्थ:
वे अतुलनीय हैं, शरभ (एक विशेष जीव) हैं, भीषण हैं, समय के ज्ञाता हैं, हवन की आहुति ग्रहण करने वाले हैं। वे सभी लक्षणों के ज्ञाता हैं, लक्ष्मी से युक्त हैं और युद्ध में विजयी होते हैं।
श्लोक 40:
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः ।महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥40॥
अर्थ:
वे विकारी नहीं होते, लालिमा युक्त हैं, मार्ग हैं, कारण हैं, दम को धारण करने वाले हैं, शक्तिशाली हैं। वे पृथ्वी को धारण करते हैं, महान सौभाग्य वाले हैं, तीव्र गति से चलने वाले और असीम भोजन करने वाले हैं।
श्लोक 41:
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥41॥
अर्थ:
वे उत्पन्न होने वाले हैं, संसार को उद्वेलित करने वाले देव हैं, लक्ष्मी को गर्भ में धारण करने वाले हैं, परमेश्वर हैं। वे सबके करण हैं, कार्य के कारण हैं, कर्ता हैं, अनेक रूपों में प्रकट होने वाले हैं, रहस्यमय और रहस्य स्वरूप हैं।
श्लोक 42:
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ॥42॥
अर्थ:
वे कार्य करने की शक्ति हैं, नियम में स्थित रहने वाले हैं, स्थायित्व देने वाले हैं, स्थान देने वाले और अचल हैं। वे श्रेष्ठ ऐश्वर्य से युक्त हैं, अत्यंत स्पष्ट हैं, संतुष्ट हैं, पुष्टि देने वाले हैं और शुभ दृष्टि वाले हैं।
श्लोक 43:
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः ।वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥43॥
अर्थ:
वे श्रीराम हैं, विश्रांति हैं, विकार रहित हैं, सच्चा मार्ग हैं, जिनका अनुसरण किया जाता है, नीति और अनीति दोनों में पारंगत हैं। वे वीर हैं, शक्तिशालियों में श्रेष्ठ हैं, धर्मस्वरूप हैं और धर्म के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ हैं।
श्लोक 44:
वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥44॥
अर्थ:
वे वैकुण्ठ हैं, परम पुरुष हैं, प्राण हैं, प्राणों के दाता हैं, ओंकार स्वरूप हैं, विस्तृत हैं। वे हिरण्यगर्भ हैं, शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, सर्वत्र व्याप्त हैं, वायु स्वरूप हैं और इन्द्रियों से परे हैं।
श्लोक 45:
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥45॥
अर्थ:
वे ऋतुओं के अधिपति हैं, सुंदर दर्शन वाले हैं, समय स्वरूप हैं, परम स्थान वाले हैं, सबको अपनाने वाले हैं। वे उग्र हैं, वर्ष रूप हैं, दक्ष हैं, विश्रांति देने वाले हैं और सम्पूर्ण ब्रह्मांड के नियामक हैं।
श्लोक 46:
विस्तारः स्थावरः स्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥46॥
अर्थ:
वे विस्तार हैं, स्थिर हैं, अचल हैं, प्रमाण हैं, अविनाशी बीज हैं। वे अर्थ हैं, अनर्थ हैं, महान खजाना हैं, महान भोग हैं और अत्यधिक धन संपदा हैं।
श्लोक 47:
अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः ।नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ॥47॥
अर्थ:
वे उत्साहहीन नहीं होते, अति स्थूल हैं, भूतत्व के रूप में हैं, धर्म का स्तंभ हैं, महान यज्ञ हैं। वे नक्षत्रों की गति के केंद्र हैं, नक्षत्रों के स्वामी हैं, क्षमा करने वाले, तपस्वी और प्रयासशील हैं।
श्लोक 48:
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥48॥
अर्थ:
वे यज्ञ हैं, यज्ञों में पूजनीय हैं, महान यज्ञ हैं, यज्ञ रूप हैं, सत्पुरुषों की गति हैं। वे सर्वदर्शी हैं, मुक्त आत्मा हैं, सर्वज्ञ हैं और सर्वोत्तम ज्ञानस्वरूप हैं।
श्लोक 49:
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत् ।मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥49॥
अर्थ:
वे उत्तम व्रतों का पालन करने वाले हैं, सुंदर मुख वाले हैं, अत्यंत सूक्ष्म हैं, मधुर वाणी वाले हैं, सुख देने वाले हैं, सखा हैं। वे मन को हरने वाले हैं, क्रोध को जीतने वाले हैं, पराक्रमी भुजाओं वाले और शत्रुओं को चीरने वाले हैं।
श्लोक 50:
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥50॥
अर्थ:
वे निद्रा देने वाले हैं, स्वयं के अधीन हैं, सर्वत्र व्याप्त हैं, अनेक आत्माओं में एक हैं, अनेक कर्मों को करने वाले हैं। वे समय स्वरूप हैं, संतानों से प्रेम करने वाले हैं, संतान स्वरूप हैं, रत्नों के गर्भस्थ हैं और धन के स्वामी हैं।
श्लोक 51:
धर्मगुब्धर्मकृद्दर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् ।अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ॥51॥
अर्थ:
वे धर्म की रक्षा करने वाले, धर्म का पालन करने वाले, स्वयं धर्म स्वरूप हैं। वे सत् और असत् दोनों के जानकार हैं, अक्षर (नाशरहित) हैं, जिन्हें कोई जान नहीं सकता, वे सहस्त्र किरणों वाले हैं, विधाता हैं और यथोचित लक्षणों से युक्त हैं।
श्लोक 52:
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥52॥
अर्थ:
वे सूर्य के चक्र के समान प्रकाशमान हैं, सत्वगुण में स्थित रहते हैं, सिंह के समान हैं, भूतों के स्वामी हैं। वे आदि देवता हैं, महादेव हैं, देवताओं के भी देव हैं और उनके गुरु हैं।
श्लोक 53:
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥53॥
अर्थ:
वे सबसे ऊपर हैं, गायों के स्वामी हैं, रक्षक हैं, ज्ञान से प्राप्त किए जा सकते हैं, अत्यंत प्राचीन हैं। वे शरीर, भूत और आत्मा के धारक हैं, भोग करने वाले हैं, वानरराज हैं और अत्यधिक दान देने वाले हैं।
श्लोक 54:
सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ॥54॥
अर्थ:
वे सोमपान करने वाले हैं, अमृत पीने वाले हैं, सोमस्वरूप हैं, अनेक विजय प्राप्त करने वाले हैं, श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे विनम्र हैं, जयस्वरूप हैं, सत्यप्रतिज्ञ हैं, दाशार्ह वंशीय हैं और सात्वतों के स्वामी हैं।
श्लोक 55:
जीवो विनयितासाक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः ।अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽंतकः ॥55॥
अर्थ:
वे जीवस्वरूप हैं, विनीत करने वाले हैं, साक्षी हैं, मोक्षदाता हैं, अपार पराक्रम वाले हैं। वे समुद्र हैं, अनंत आत्मा हैं, क्षीरसागर में शयन करने वाले हैं और मृत्यु रूप हैं।
श्लोक 56:
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥56॥
अर्थ:
वे अजन्मा हैं, महान पूज्य हैं, स्वभाव से ही हैं, शत्रुओं को जीतने वाले हैं, प्रसन्नता देने वाले हैं। वे आनंद स्वरूप हैं, नंदन (नंद के पुत्र) हैं, प्रसन्न हैं, सत्य और धर्म में स्थित हैं, और त्रिविक्रम (तीन पग में ब्रह्मांड को नापने वाले) हैं।
श्लोक 57:
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् ॥57॥
अर्थ:
वे महान ऋषि हैं, कपिलाचार्य के रूप में विख्यात हैं, कृतज्ञ हैं, पृथ्वी के स्वामी हैं। वे तीन पग वाले हैं, देवताओं के अध्यक्ष हैं, महान सींगों वाले हैं और मृत्यु (काल) के भी नाशक हैं।
श्लोक 58:
महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी ।गुह्यो गभीरोगहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥58॥
अर्थ:
वे महावराह हैं, गोविंद हैं, सुषेण हैं, स्वर्ण आभूषण पहनने वाले हैं। वे रहस्य स्वरूप हैं, गंभीर हैं, अगम्य हैं, छिपे हुए हैं और चक्र-गदा धारण करने वाले हैं।
श्लोक 59:
वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः ।वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ॥59॥
अर्थ:
वे सृष्टिकर्ता हैं, स्वयं अंगों से परिपूर्ण हैं, अजित हैं, कृष्ण हैं, दृढ़ हैं, संकर्षण हैं और अच्युत हैं। वे वरुण हैं, वारुण (वरुण पुत्र) हैं, वृक्ष स्वरूप हैं, कमलनेत्र हैं और उदार बुद्धि वाले हैं।
श्लोक 60:
भगवान् भगहाऽनन्दी वनमाली हलायुधः ।आदित्यः ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥60॥
अर्थ:
वे भगवान हैं, सम्पत्ति देने वाले हैं, आनन्दित करने वाले हैं, वनमाला धारण करते हैं, हल (फारसा) उनका आयुध है। वे आदित्य हैं, प्रकाश के स्वरूप हैं, अत्यंत सहनशील हैं और सर्वोत्तम गति प्रदान करने वाले हैं।
श्लोक 61:
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।दिवःस्पृक् सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥61॥
अर्थ:
वे उत्तम धनुष वाले हैं, परशु (कुल्हाड़ी) धारण करने वाले हैं, कठोर हैं, धन प्रदान करने वाले हैं। वे आकाश को स्पर्श करते हैं, सब कुछ देखने वाले हैं, वेदव्यास हैं, वाणी के स्वामी हैं और अजन्मा हैं।
श्लोक 62:
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।संन्यासकृत्शमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥62॥
अर्थ:
वे तीन प्रकार के सामवेद हैं, सामगान करने वाले हैं, स्वयं साम हैं। वे मोक्ष हैं, औषधि हैं, चिकित्सक हैं, संन्यास की भावना को धारण करने वाले हैं, क्षमाशील हैं, शांति स्वरूप हैं, परम लक्ष्य हैं।
श्लोक 63:
शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥63॥
अर्थ:
उनके अंग शुभ हैं, वे शांति प्रदान करते हैं, सृष्टिकर्ता हैं। वे कमल के समान आनंददायक हैं, जल में वास करने वाले हैं, गौओं के हितैषी, स्वामी और रक्षक हैं, धर्म रूपी वृषभ के समान नेत्रों वाले हैं और धर्मप्रिय हैं।
श्लोक 64:
अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृत्शिवः ।श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ॥64॥
अर्थ:
वे कभी पराजित नहीं होते, आत्मा से निवृत्त हैं, संक्षेप में कार्य करने वाले हैं, कल्याण करने वाले हैं, कल्याणस्वरूप हैं। उनके वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न है, वे लक्ष्मी के वासस्थान हैं, लक्ष्मीपति हैं और लक्ष्मी से युक्तों में श्रेष्ठ हैं।
श्लोक 65:
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान् लोकत्रयाश्रयः ॥65॥
अर्थ:
वे लक्ष्मी देने वाले हैं, लक्ष्मी के स्वामी हैं, लक्ष्मी के वास हैं, लक्ष्मी के भंडार हैं, लक्ष्मी को प्रकाशित करने वाले हैं। वे श्रीधर हैं, लक्ष्मी देने वाले हैं, श्रेष्ठ हैं, श्रीमान हैं और तीनों लोकों के आश्रय हैं।
श्लोक 66:
स्वक्षः स्वाङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्चिन्नसंशयः ॥66॥
अर्थ:
वे स्वच्छ शरीर वाले हैं, सुंदर अंगों वाले हैं, सैकड़ों प्रकार के आनंद देने वाले हैं, नंदी हैं, प्रकाश स्वरूप हैं और गणों के स्वामी हैं। उन्होंने आत्मा को जीत लिया है, वे आज्ञाकारिता के प्रतीक हैं, सद्गुणों से युक्त कीर्ति वाले हैं और जिनके सारे संशय समाप्त हो गए हैं।
श्लोक 67:
उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ॥67॥
अर्थ:
वे उदित हुए हैं, सभी दिशाओं में उनकी दृष्टि है, वे ईश्वर हैं, सदा स्थिर और शाश्वत हैं। वे पृथ्वी पर शयन करने वाले हैं, भूषण हैं, ऐश्वर्य हैं, शोक रहित हैं और शोक का नाश करने वाले हैं।
श्लोक 68:
अर्चिष्मानर्चितः कुंभो विशुद्धात्मा विशोधनः ।अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥68॥
अर्थ:
वे तेजस्वी हैं, पूजित हैं, अमृत के कलश हैं, शुद्ध आत्मा हैं और सबको शुद्ध करने वाले हैं। वे अनिरुद्ध हैं, जिनका कोई सामना नहीं कर सकता, प्रद्युम्न हैं और जिनका पराक्रम असीमित है।
श्लोक 69:
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥69॥
अर्थ:
वे कालनेमि का नाश करने वाले हैं, वीर हैं, शूर वंश में जन्मे हैं, शूरवीरों के स्वामी हैं। वे तीनों लोकों के आत्मा हैं, तीनों लोकों के ईश्वर हैं, केशव हैं, केशी राक्षस का वध करने वाले हैं और विष्णु हैं।
श्लोक 70:
कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनंजयः ॥70॥
अर्थ:
वे कामदेव हैं, काम के रक्षक हैं, इच्छाओं के अधिपति हैं, प्रिय हैं, और शास्त्रों के रचयिता हैं। उनका स्वरूप वर्णनातीत है, वे विष्णु हैं, वीर हैं, अनंत हैं और धन को जीतने वाले (अर्जुन) स्वरूप हैं।
श्लोक 71:
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥71॥
अर्थ:
वे ब्रह्मज्ञानी हैं, ब्रह्मा को उत्पन्न करने वाले हैं, स्वयं ब्रह्मा हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं, ब्रह्म का विस्तार करने वाले हैं। वे वेदों को जानने वाले हैं, ब्राह्मणों के रूप हैं, ब्रह्म में स्थित हैं, ब्रह्म को जानने वाले हैं और ब्राह्मणों को प्रिय हैं।
श्लोक 72:
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥72॥
अर्थ:
वे महान गति वाले हैं, महान कर्म करने वाले हैं, महान तेज से युक्त हैं, महान सर्प (अनंत) हैं। वे महान यज्ञकर्ता, महान यज्ञस्वरूप और महान आहुति स्वरूप हैं।
श्लोक 73:
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥73॥
अर्थ:
वे स्तुति करने योग्य हैं, स्तुति को प्रिय मानते हैं, स्तोत्र स्वरूप हैं, स्तुति हैं, स्तोता हैं, युद्ध को प्रिय हैं। वे पूर्ण हैं, दूसरों को पूर्णता देने वाले हैं, पुण्यस्वरूप हैं, पुण्य कीर्ति वाले हैं और रोगरहित हैं।
श्लोक 74:
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेतावसुप्रदः ।वसुप्रदो वासुदेवो वसुः वसुमनाः हविः ॥74॥
अर्थ:
वे मन के समान तीव्र गति वाले हैं, तीर्थ स्वरूप हैं, श्रेष्ठ धन (वसु) देने वाले हैं। वे वसुदेव हैं, वसु हैं, सबका मन जीतने वाले हैं और यज्ञ की आहुति स्वरूप हैं।
श्लोक 75:
सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ॥75॥
अर्थ:
वे सच्चे मार्ग की ओर ले जाने वाले हैं, सन्मान के योग्य हैं, अस्तित्वस्वरूप हैं, सच्चे ऐश्वर्य से युक्त हैं और सत्पुरुषों का परम लक्ष्य हैं। वे शूरसेन वंश के हैं, यदुवंश में श्रेष्ठ हैं, उत्तम निवास वाले हैं और यमुना के समीप निवास करते हैं।
श्लोक 76:
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।दर्पहा दर्पदो दृष्टो दुर्धरोऽथापराजितः ॥76॥
अर्थ:
वे समस्त भूतों के वास हैं, वासुदेव हैं, सभी प्राणियों में निवास करते हैं, अग्निस्वरूप हैं। वे घमंड का नाश करने वाले हैं, घमंड को उत्पन्न करने वाले भी हैं, प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं, जिनका धारण करना कठिन है और जो अपराजेय हैं।
श्लोक77:
विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ॥77॥
अर्थ:
वे संपूर्ण ब्रह्मांड के रूप वाले हैं, महान रूप वाले हैं, प्रकाश से युक्त रूप वाले हैं, फिर भी अमूर्त (बिना रूप के) हैं। वे अनेक रूपों में हैं, अव्यक्त हैं, सैकड़ों रूपों और चेहरों वाले हैं।
श्लोक 78:
एको नैकः सवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम् ।लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥78॥
अर्थ:
वे एक हैं और अनेक हैं, सबकुछ हैं, कौन हैं और क्या हैं – ये सब प्रश्न उन्हीं से जुड़े हैं। वे परम तत्व हैं, संसार के बंधु हैं, लोकों के स्वामी हैं, लक्ष्मीपति माधव हैं और भक्तों के प्रति अत्यंत स्नेही हैं।
श्लोक 79:
सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥79॥
अर्थ:
उनका रंग सुवर्ण के समान है, उनके अंग स्वर्ण के समान हैं, सुंदर अंगों से युक्त हैं, चंदन के आभूषण पहनते हैं। वे वीरों का संहार करने वाले हैं, विषम हैं, शून्य हैं, घी के समान आहुति ग्रहण करने वाले हैं, अचल भी हैं और गति युक्त भी हैं।
श्लोक 80:
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् ।सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ॥80॥
अर्थ:
वे अभिमान रहित हैं, दूसरों को सम्मान देने वाले हैं, स्वयं पूज्य हैं, समस्त लोकों के स्वामी हैं, तीनों लोकों को धारण करने वाले हैं। वे उत्तम बुद्धि वाले हैं, यज्ञ से उत्पन्न हैं, धन्य हैं, सत्य ज्ञान वाले हैं और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं।
श्लोक 81:
तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृंगो गदाग्रजः ॥81॥
अर्थ:
वे तेजस्वी वर्षा समान हैं, तेज को धारण करने वाले हैं, सभी शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं। वे धारण करने वाले, संयमित करने वाले, सदा व्यस्त रहने वाले, अनेक सींगों वाले और गदा के अग्रज (बलराम) हैं।
श्लोक82:
चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥82॥
अर्थ:
उनके चार रूप हैं, चार भुजाएं हैं, वे चार प्रकार के रूपों में प्रकट होते हैं, चार गतियों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) वाले हैं। वे चार प्रकार के आत्माओं में स्थित हैं, चार भावों से युक्त हैं और चारों वेदों के ज्ञाता हैं, एक ही स्वरूप से सबमें विद्यमान हैं।
श्लोक 83:
समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥83॥
अर्थ:
वे सबको घेरने वाले हैं, जिनका आत्मा लौकिकता से निवृत्त है, जिन्हें जीतना कठिन है, जिन्हें पार करना कठिन है। वे दुर्लभ हैं, जिन तक पहुँचना कठिन है, वे स्वयं दुर्ग हैं, उनके पास वास करना कठिन है और वे दुष्टों के शत्रु हैं।
श्लोक 84:
शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥84॥
अर्थ:
उनके अंग शुभ हैं, वे संसार रूपी पुष्पों का रस लेने वाले हैं, उत्तम सूत्र हैं और सृष्टि के ताने-बाने को विस्तार देने वाले हैं। वे इंद्र जैसे कार्य करने वाले हैं, महान कर्म करते हैं, कर्तव्य रूपी कर्मों को करते हैं और धर्मशास्त्रों को रचते हैं।
श्लोक 85:
उद्भवः सुंदरोन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।अर्को वाजसनः श्रृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ॥85॥
अर्थ:
वे उत्पत्ति के कारण हैं, सुंदर हैं, मधुर हैं, रत्नों से युक्त नाभि वाले हैं, सुंदर नेत्रों वाले हैं। वे सूर्य स्वरूप हैं, यज्ञप्रिय हैं, सींगों वाले (अर्थात बलशाली) हैं, विजयी हैं और सर्वज्ञानी विजयी हैं।
श्लोक 86:
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥86॥
अर्थ:
वे स्वर्ण के समान चमकते बिंदु हैं, अचल हैं, सभी वाक्पटु देवों के भी ईश्वर हैं। वे महान जलराशि के समान हैं, गहरे गर्त जैसे हैं, महान पंचमहाभूत स्वरूप हैं और महान निधि (धन) हैं।
श्लोक 87:
कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।अमृतांशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥87॥
अर्थ:
वे प्रसन्नता देने वाले हैं, पवित्रता देने वाले हैं, चंद्रमा के समान शीतल हैं, वर्षा करने वाले मेघ हैं, शुद्ध करने वाले हैं और पवन स्वरूप हैं। वे अमृतांशु (चंद्र) से उत्पन्न हुए हैं, अमृतमय शरीर वाले हैं, सर्वज्ञ हैं और चारों दिशाओं में मुख रखने वाले हैं।
श्लोक 88:
सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।न्यग्रोधोऽदुम्बरोऽश्वत्तः चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥88॥
अर्थ:
वे सुलभ हैं, श्रेष्ठ व्रतों का पालन करने वाले हैं, सिद्ध हैं, शत्रुओं पर विजय पाने वाले हैं और उन्हें संतप्त करने वाले हैं। वे वटवृक्ष हैं, उडुंबर वृक्ष हैं, पीपल वृक्ष हैं और चाणूर तथा आंध्र जैसे राक्षसों का नाश करने वाले हैं।
श्लोक 89:
सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥89॥
अर्थ:
वे हजारों किरणों वाले हैं, सात जिह्वाओं वाले हैं (अग्नि के रूप में), सात प्रकार की अग्नियों से पूजित हैं और सात रथों पर चलने वाले हैं। वे बिना रूप के हैं, निष्पाप हैं, अचिन्त्य हैं, भय उत्पन्न करने वाले हैं और भय का नाश करने वाले हैं।
श्लोक 90:
अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥90॥
अर्थ:
वे अत्यंत सूक्ष्म हैं, विशाल हैं, कृश हैं, स्थूल हैं, गुणों को धारण करते हैं फिर भी निर्गुण हैं और महान हैं। वे किसी अन्य से धारण नहीं किए जाते, स्वयं को धारण करने वाले हैं, स्वयंमुखी हैं, प्राचीन वंश के हैं और अपने वंश का विस्तार करने वाले हैं।
श्लोक 91:
भारभृत्तथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥91॥
अर्थ:
वे भार वहन करने वाले हैं, स्थितप्रज्ञ योगी हैं, योगियों के स्वामी हैं, सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं। वे सभी आश्रमों के आश्रय हैं, तपस्वी हैं, क्षीण देह वाले हैं, गरुड़ रूप में उड़ने वाले हैं और वायु के वाहन हैं।
श्लोक 92:
धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः ।अपराजितः सर्वसहः नियन्ता नियमो यमः ॥92॥
अर्थ:
वे धनुषधारी हैं, धनुर्वेद के ज्ञाता हैं, अनुशासन देने वाले हैं, संयमित करने वाले हैं, स्वयं संयम हैं। वे अपराजेय हैं, सब कुछ सहन करने वाले हैं, नियंता हैं, नियमस्वरूप हैं और यम (नियंत्रक) हैं।
श्लोक 93:
सत्त्ववान्सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः ॥93॥
अर्थ:
वे सत्त्वगुण से परिपूर्ण हैं, सात्त्विक हैं, सत्यस्वरूप हैं, सत्यधर्म के प्रति समर्पित हैं। वे शुभ संकल्प वाले हैं, प्रिय व्यक्ति को सम्मान देने योग्य हैं, प्रिय कार्य करने वाले हैं और प्रेम को बढ़ाने वाले हैं।
श्लोक 94:
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ॥94॥
अर्थ:
वे आकाश मार्ग से गति करने वाले हैं, ज्योति हैं, सुंदर प्रकाश वाले हैं, हवन की आहुति को ग्रहण करने वाले हैं, सर्वव्यापक हैं। वे सूर्य हैं, प्रकाश देने वाले हैं, सूर्य रूप हैं, सबका पोषण करने वाले हैं और उनकी दृष्टि सूर्य जैसी है।
श्लोक 95:
अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥95॥
अर्थ:
वे अनंत हैं, यज्ञ की आहुति को स्वीकार करने वाले हैं, भोग करने वाले हैं, सुख देने वाले हैं। वे अनेक रूपों में जन्म लेते हैं, सबके अग्रज हैं, कभी उदास नहीं होते, सहनशील हैं, संसार के आधार हैं और अद्भुत हैं।
श्लोक 96:
सनः सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक् स्वस्तिदक्षिणः ॥96॥
अर्थ:
वे सनक आदि ऋषियों के स्वरूप हैं, सबसे प्राचीन हैं, कपिल मुनि हैं, सबका पोषण करने वाले और अविनाशी हैं। वे मंगल प्रदान करते हैं, कल्याण करने वाले हैं, स्वयं कल्याण स्वरूप हैं, शुभ फल देने वाले हैं और दक्षिण दिशा के स्वामी हैं।
श्लोक 97:
अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ॥97॥
अर्थ:
वे उग्र नहीं हैं, सर्प जैसे कुण्डल धारण करने वाले हैं, चक्रधारी हैं, अत्यंत पराक्रमी हैं और दृढ़ शासन वाले हैं। वे शब्दातीत हैं, सब शब्दों को सहन करने वाले हैं, शीतल हैं और रात्रि की छाया देने वाले हैं।
श्लोक 98:
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥98॥
अर्थ:
वे निर्दयी नहीं हैं, कोमल स्वभाव के हैं, दक्ष हैं, दक्षिणा देने वाले हैं, क्षमा करने वालों में श्रेष्ठ हैं। वे महान ज्ञानी हैं, निर्भय हैं और जिनका श्रवण व कीर्तन पुण्यदायक होता है।
श्लोक 99:
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ॥99॥
अर्थ:
वे उद्धार करने वाले हैं, पाप कर्मों का नाश करने वाले हैं, पुण्यस्वरूप हैं, दुःस्वप्नों का नाश करने वाले हैं। वे वीरों को मारने वाले हैं, रक्षक हैं, सज्जनों के जीवन का आधार हैं और सदा स्थित रहने वाले हैं।
श्लोक 100:
अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।चतुरश्रोगभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥100॥
अर्थ:
उनके अनंत रूप हैं, वे अनंत श्री से युक्त हैं, उन्होंने क्रोध को जीत लिया है, वे भय का नाश करने वाले हैं। वे चारों ओर समान दृष्टि रखने वाले हैं, गंभीर आत्मा हैं और सभी दिशाओं के ज्ञाता हैं।
श्लोक 101:
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः ।जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥101॥
अर्थ:
वे अनादि हैं, भूरि (पृथ्वी), भुवः (आकाश) के स्वामी हैं, लक्ष्मी स्वरूप हैं, श्रेष्ठ वीर हैं, सुंदर आभूषण धारण करते हैं। वे समस्त सृष्टि के जन्मदाता हैं, भीषण हैं और महान पराक्रमी हैं।
श्लोक 102:
आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः ।ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥102॥
अर्थ:
वे आधार हैं, निवास हैं, धारण करने वाले हैं, पुष्पवत खिले हुए हैं, सदा जाग्रत हैं। वे ऊपर उठने वाले हैं, सत्पथ पर चलने वाले हैं, प्राण देने वाले हैं, ओंकार हैं और श्रेष्ठ मूल्य हैं।
श्लोक 103:
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत् प्राणजीवनः ।तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥103॥
अर्थ:
वे प्रमाण हैं, प्राणों के निवास हैं, प्राणों का पालन करने वाले हैं, प्राणों का जीवन हैं। वे तत्व हैं, तत्व के ज्ञाता हैं, एक आत्मा हैं और जन्म-मरण-बुढ़ापे से परे हैं।
श्लोक 104:
भूरभुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥104॥
अर्थ:
वे भूः, भुवः और स्वः लोकों के वृक्ष हैं, तारक (उद्धारक) हैं, सविता (सूर्य) हैं, पितामह (ब्रह्मा) के भी पिता हैं। वे यज्ञ हैं, यज्ञ के स्वामी हैं, यज्ञकर्ता हैं, यज्ञ के अंग हैं और यज्ञ को वहन करने वाले हैं।
श्लोक 105:
यज्ञभृद् यज्ञकृत् यज्ञी यज्ञभुक् यज्ञसाधनः ।यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥105॥
अर्थ:
वे यज्ञ को धारण करने वाले हैं, यज्ञ करने वाले हैं, यज्ञस्वरूप हैं, यज्ञ का भोग करने वाले हैं और यज्ञ के साधन हैं। वे यज्ञ के अंत का कारण हैं, यज्ञ का रहस्य हैं, वे अन्न हैं और अन्न को ग्रहण करने वाले भी हैं।
श्लोक 106:
आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥106॥
अर्थ:
वे स्वयं की उत्पत्ति हैं, स्वयं प्रकट हुए हैं, वैखानस ऋषि हैं, सामवेद गाने वाले हैं। वे देवकी के पुत्र हैं, सृष्टिकर्ता हैं, पृथ्वी के स्वामी हैं और पापों का नाश करने वाले हैं।
श्लोक 107:
शंखभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ॥107॥
अर्थ:
वे शंख, नन्दक तलवार, चक्र, शार्ङ्ग धनुष और गदा धारण करने वाले हैं। वे रथ के चक्र को हाथ में धारण करने वाले हैं, जिन्हें विचलित नहीं किया जा सकता और जो समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हैं।
अंतिम मंत्र:सर्वप्रहरणायुधोऽं नमः इति।अर्थ:वह भगवान विष्णु, जो सभी प्रकार के शस्त्रों को धारण करते हैं — उन्हें नमस्कार है।
इस प्रकार विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का सरल हिन्दी अनुवाद संपन्न होता है।
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का महत्व और लाभ
यह स्तोत्र क्यों पढ़ें?
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र भगवान विष्णु के 1000 दिव्य नामों का संकलन है, जो महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को सुनाया था। यह सबसे पवित्र और प्रभावशाली स्तोत्रों में गिना जाता है।
मुख्य लाभ:
मानसिक शांति और स्थिरता: इसका नियमित पाठ चित्त को शुद्ध करता है और मानसिक तनाव को दूर करता है।
संकटों से रक्षा: शत्रु बाधा, ग्रह दोष, रोग और भय से सुरक्षा मिलती है।
आध्यात्मिक उन्नति: यह स्तोत्र आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाला सेतु है।
मोक्ष प्राप्ति: मृत्यु के समय इसका स्मरण मोक्ष की प्राप्ति कराता है।
नौकरी, विवाह, संतान आदि कार्यों में सफलता: विशेषकर गुरुवार को पाठ करने से विशेष फल मिलता है।
रोग निवारण: इसके पाठ से शरीर व मन की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र से जुड़े प्रमुख प्रश्न (FAQs)
प्र. 1: विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र कब पढ़ना चाहिए?
सुबह स्नान के बाद शुद्ध वातावरण में इसका पाठ श्रेष्ठ माना गया है। लेकिन समयाभाव में मन से स्मरण भी उत्तम है।
प्र. 2: क्या स्त्री भी इसका पाठ कर सकती है?
हाँ, स्त्री-पुरुष, कोई भी इसका श्रद्धा से पाठ कर सकता है। यह सभी के लिए फलदायी है।
प्र. 3: क्या इसका पाठ करने के लिए ब्राह्मण होना जरूरी है?
नहीं। कोई भी जाति, वर्ग या धर्म का व्यक्ति इसका पाठ कर सकता है। केवल श्रद्धा और नियम जरूरी है।
प्र. 4: क्या इसे कंठस्थ करना आवश्यक है?यदि कंठस्थ न भी हो तो पुस्तक या मोबाइल से देखकर श्रद्धापूर्वक पाठ करने से भी वही फल मिलता है।
प्र. 5:क्या इसका पाठ रोज़ करना चाहिए?
हाँ, लेकिन यदि रोज न कर सकें तो प्रति गुरुवार या एकादशी को अवश्य करें।
निष्कर्ष:
विष्णु सहस्रनाम का पाठ केवल एक स्तोत्र नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक साधना है जो व्यक्ति के जीवन को हर स्तर पर शुद्ध, सशक्त और समृद्ध बनाती है।